तेरे आकाश में
कहीं छिपा है
मेरे आकाश का
एक नन्हा सा टुकड़ा
अपने ख़्वाबों
और ख्यालों को
पतंग बना
उड़ा दिया है
अपने आसमान में
और पकड़ रखी है
डोर बड़ी मजबूती से
पर फिर भी
दे देती हूँ ढील कभी
तो लहरा कर
कट जाती है कोई पतंग
और मैं रह जाती हूँ
मात्र डोर थामे
निर्निमेष देखती हूँ
उस पतंग को
धरती पर आते हुए
तुम्हारे विस्तृत अम्बर में
नहीं है शतांश भी
मेरी पतंगों के लिए
मैं तुम्हारे आसमान में
अपना आसमां ढूँढती हूँ
अब तो डोर भी थामे
थकने लगी हूँ
बस
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