Wednesday, June 15, 2011

तेरे आकाश में कहीं छिपा है

 
तेरे आकाश में 
कहीं छिपा है 
मेरे आकाश का 
एक नन्हा सा  टुकड़ा 
अपने ख़्वाबों 
और ख्यालों को 
पतंग बना 
उड़ा दिया है 
अपने आसमान में 
और पकड़ रखी है 
डोर बड़ी मजबूती से 
पर फिर भी 
दे देती हूँ ढील कभी
तो लहरा  कर  
कट जाती है कोई पतंग 
और मैं रह जाती हूँ 
मात्र डोर थामे 
निर्निमेष देखती हूँ 
उस पतंग को 
धरती पर आते हुए 
तुम्हारे विस्तृत अम्बर में 
नहीं है शतांश भी 
मेरी पतंगों के लिए 
मैं तुम्हारे आसमान में 
अपना आसमां ढूँढती हूँ 
अब तो डोर भी थामे 
थकने लगी हूँ 
बस

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