Wednesday, June 15, 2011

तेरे आकाश में कहीं छिपा है

 
तेरे आकाश में 
कहीं छिपा है 
मेरे आकाश का 
एक नन्हा सा  टुकड़ा 
अपने ख़्वाबों 
और ख्यालों को 
पतंग बना 
उड़ा दिया है 
अपने आसमान में 
और पकड़ रखी है 
डोर बड़ी मजबूती से 
पर फिर भी 
दे देती हूँ ढील कभी
तो लहरा  कर  
कट जाती है कोई पतंग 
और मैं रह जाती हूँ 
मात्र डोर थामे 
निर्निमेष देखती हूँ 
उस पतंग को 
धरती पर आते हुए 
तुम्हारे विस्तृत अम्बर में 
नहीं है शतांश भी 
मेरी पतंगों के लिए 
मैं तुम्हारे आसमान में 
अपना आसमां ढूँढती हूँ 
अब तो डोर भी थामे 
थकने लगी हूँ 
बस

उतरा चाँद मेरे

                                  फ़लक के तारों को देख 

जागती थी तमन्ना  
कोई एक सितारा 
मेरे आँगन में भी उतरे


उतर आया है पूरा चाँद 
मेरी बगिया में 
और रोशन हो गयी है 
मेरी बाड़ी उसकी चांदनी से 


चमक गया है हर पल जैसे 
मेरे धूमिल पड़े जीवन का 
मिल गया है मकसद  जैसे 
मुझे अपनी ज़िंदगी का .


मेरी ज़िंदगी की धुरी का वो 
केन्द्र  बन गया है 
मेरे घर एक नन्हा सा 
फरिश्ता  आ गया है ....

ईमानदारी से

ईमानदारी से
चाहती हूँ कहना
कि
मैं ईमानदार नहीं.
क्यों कि
जो कहती हूँ
वो करती नहीं
जो सोचती हूँ
वो होता नहीं
जो होता है
वो चाहती नहीं .
इसी ऊहापोह में
जीती चली जाती हूँ
क्षण - प्रतिक्षण
परिस्थितियों में
ढलती चली जाती हूँ.
जो बदल जाये
वक़्त के साथ
तो बताओ
वो कैसे
रह पायेगा ईमानदार
खुद की सोचों पर भी
बिठा  देती हूँ कभी - कभी
अनदेखा पहरेदार
और मान लेती हूँ
कि
ज़िन्दगी जी रही हूँ.
जब कि जानती हूँ
कि
पल पल मर रही हूँ.
इसीलिए 
कहती हूँ ईमानदारी से
कि
मैं ईमानदार नहीं .

सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है



मन की बात मन में ही दबी सी जाती है 

बात लबों  तक आकर भी निकाली  नहीं  जाती है 

आज हो गया है  , दिल मेरा पत्थर 
अब तो फूलों की महक भी सही नहीं जाती है .

मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की 
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .

दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से 
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है 

मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा 
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है 


सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था 
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है