पति परमेश्वर रहा नहीं ,
पति बना पतंग ।
दिन भर घूमे गली-गली,
बनकर मस्त मलंग ॥
घर में आटा दाल नहीं,
नहीं गैस नहीं तेल ।
पति चार सौ बीस हैं ,
घर को कर दिया फ़ेल ॥
सुबह घर से निकल पड़े,
लौटे हो गई शाम ।
हम घर में घु्टते रहे
छीन लिया आराम ॥
खाना अच्छा बना नहीं ,
यही शिकायत रोज़ ।
पत्नी तपे रसोई में ,
करें पति जी मौज़ ।
एक बात सबसे कहूँ ,
सुनलो देकर ध्यान ।
पति परमेश्वर रहा नहीं ,
पति बना शैतान ॥
पति दर्द समझे नहीं ,
पति कोढ़ में खाज ।
पत्नी का घर-बार है ,
फिर भी पति का राज॥
पति तो परमेश्रर ही है
पत्नी का है कहना
परमेश्रर वाला एक भी गुण
चाहे पति सीख सके ना
पति-पत्नी ....
जीवन के हैं दो पहिये
जीवन के हैं दो पहिये
जीवन को चलाने के लिए
दोनों ही हमें चाहिए
यह बात पति ने
अब तक ना मानी
अब तक ना मानी
करता फिरता फिर भी
वो अपनी मनमानी
वो अपनी मनमानी
ऊँचा बोलकर रौब जमाता
तुझे घर सँभालना नहीं आता
बड़ी-बड़ी बातें सीख गया वो
पत्नी-सम्मान करना नहीं आता
अपनी नाकामी का सेहरा
पत्नी के सिर ही बाँधता
ठीक हो चाहे गलत
बस अपनी ही हाँकता
पत्नी नहीं करती
कोई गिला- शिक़वा
कोई गिला- शिक़वा
यही गुण उसे
विरासत में मिला
कोई बात नहीं
विरासत में मिला
कोई बात नहीं
सुबह का भूला
शाम को ....
घर लौट आए
घर लौट आए
हम दोनों तो
घी- शक्कर हैं
घी- शक्कर हैं
कोई जुदा ...
हमें कर न पाए
उसी को ही
अपना सब कुछ मानती
पति है राजा
हमें कर न पाए
माँ-बाप ने जब से
उसके जीवन की डोरी
पति के हाथ सँभाली
तब से वह तो उसी को ही
अपना सब कुछ मानती
पति है राजा
वो है उसकी रानी
दोनों से ही घर बनता है
यही घर-घर की कहानी !
No comments:
Post a Comment